मैं पलाश हूँ , सदियों से परिंदों के सुकून की तलाश हूँ,
मौसमों की पहली पुकार हूँ,
और अब, शायद… तुम्हारी याद में खोती जा रही एक आवाज़।
में हूं एक पुराना, सीधा-सादा पेड़ — ना ज़्यादा ऊँचा, ना बहुत घना ,पर जब वसंत आता है, तो पूरा जंगल मेरी ओर देखने लगता है। मुझसे कोई खुशबू नहीं आती, पर जब मेरी शाखाओं पर अंगारों जैसे फूल खिलते हैं, तो लगता है मानो जंगल ने मेरी चादर ओढ़ ली हो।
मैने इन जंगलों को बदलते हुए करीब से देखा है और वसंत में आने वाले मेरे फूल इस बदलाव के साक्षी है…. एक वक्त था जब हर जीव मेरे इर्द-गिर्द एक होकर मौसमी परिवर्तन का स्वागत करता था।पर अब बहुत कुछ बदल गया है। मौसम समय पर नहीं आते कभी वसंत जल्दी आ जाता है, कभी देर से। कभी मैं समय से पहले फूलों से भर जाता हूँ, तो कभी पूरा मौसम यूँ ही सूना निकल जाता है।
जलवायु परिवर्तन ने मेरी सृष्टि का क्रम तोड़ दिया है।
पहले बारिश की हर बूँद मुझे ऊर्जा देती थी —अब वो कभी बहुत ज़्यादा होती है, कभी बिलकुल नहीं। कभी तेज़ आँधी मेरी शाखाएँ तोड़ देती है, तो कभी लंबे सूखे मेरी जड़ों को थका देते हैं। मेरे साथ के कई पेड़ अब नहीं रहे। जहाँ पहले मेरे जैसे पलाश के झुरमुट थे, वहाँ अब खेतों की सीमा दीवारें हैं या कंक्रीट के खंभे। फिर भी, मैं खड़ा हूँ
—
उसी जगह, उसी चट्टान के पास, जहाँ कभी बच्चों की टोली खेलती थी।
जहाँ मेरी टहनियों से दोने और पत्तल बनते थे।
जहाँ मेरे फूलों से रंग बनता था — होली के लिए, पूजा के लिए, उत्सव के लिए।
मुझे याद है वो दिन जब ऋषि मेरी छाया में ध्यान करते थे,
जब मेरी लकड़ी यज्ञ की समिधा बनती थी,
जब मेरी शाखाओं पर प्रेमियों ने नाम लिखे थे।
तब मैं सिर्फ एक पेड़ नहीं था — मैं एक स्मृति बन चुका था। परंतु अब सब वैसा नहीं रहा, धीरे धीरे सब बदल रहा है और मैंने इस बदलाव को करीब से महसूस किया है..
गर्मियों के आरम्भ के साथ मेरे फूल सुख कर गिरने लगते है और उसके बाद फलियों के रूप में बीज आते है जिन्हें हवा और पंछी दूर तक फैला देते है फिर गर्मियों में तापमान में वृद्धि के साथ मेरे पत्तों आवरण बढ़ने लगता है और भीषण गर्मी में मेरी ठंडी छाया में जंगल का जीवन समृद्ध होता है , मेरे आगोश में जीव जंतु आश्रय पाते है और यह मेरे मन को सुकून देता है |

वर्षा के आरम्भ के साथ सम्पूर्ण धरा पर हरित चादर बिछ जाती है और चहुंओर हरियाली छाई होती है | धीरे धीरे जल की कमी होने के साथ में अपनी पत्तियों को गिराना आरंभ करता हूं और
सर्दियों के आने के साथ में अपने पत्ते गिराकर तीनों ऋतुओं का अनुभव कर लेने के बाद मुझे इंतज़ार होता है साल के उस खास समय का जिसे ऋतुराज वसंत भी कहते है – में साल भर प्रकृति में हो रहे बदलावों से चिंतित रहता हूं पर जब भी कोई परिंदा मेरी टहनी पर बैठता है,जब कोई बच्चा मेरी तरफ इशारा कर कहता है — “वो देखो टेसू!” तब मुझे लगता है, मैं अब भी ज़िंदा हूँ… मैं अब भी ज़रूरी हूँ।
बसंत के आते ही शुरू होता है एक स्वर्णकाल जो पूरे वन क्षेत्र को रंग देता है | मेरी टहनियों पर अग्नि सदृश चटख नारंगी / सिंदूरी पुष्प आते है जो ऐसा दृश्य प्रकट करते है मानो जंगल मेरी आग में जल रहा हो. यूंही थोड़ी जंगल की आग कहते है मुझे …..! वसंतकाल में पूरा जंगल मेरी चादर ओढ़ लेता है और आरंभ होती है एक श्रृंखला जीवन के संचार की – प्रकृति के शृंगार की – वनस्पतियों की आपसी होड़ की – भोजन के संघर्ष की – जंगल की ख़ास दावत की|
प्रतिदिन भोरकाल में सर्द चांदनी रात में धरा पर आए निशाजल की बूंदों के फूलों में सिमट जाने से बने अमृततुल्य मकरंद लेनें के लिए होड़ सी मच जाती है कही तितलियां तो कहीं भंवरे… शकरखोरे भी पीछे नहीं रहते अपनी लंबी सी चोंच लेकर वो भी पराग को खींचते है , सुबह की गुलाबी धूप में चमकती टहनियों पर मटक कर अपना अधिकार जमाती मैना, फूलों को खाकर शोर मचाते तोते, काली टोपी धारण कर पीले रंग में चमकते पीलक, मेरे पुष्प के साथ रंग मिलाते नर मिनिवेट, नीले – गुलाबी रंगों को दिखा कलाबाजियां दिखाते रोलर , श्याम वर्ण की चमक को अपनी जादुई पुच्छ से स्थापित करते रैकेट टेल्ड ड्रोंगों, द्विरंगी आभा के साथ तान छेड़ते टुइयां, , नील हरित रंग में रंगे पतरिंगे कहीं ऊंचे पेड़ो पर आराम करती “नन्ही” गिलहरीयां….

ये सभी मिलकर मेरे आसपास एक उत्सव की घोषणा कर देते है एक ऐसा उत्सव जिसमें हर तरह का पंछी , कीट , स्तनों जीव मेरे फूलों का आनंद लेने आता है , लंगूर पेड़ पर तो नीचे गिरने का बाद हिरण मेरे फूलों को खाते है | कभी कभी तो इन नन्हे परिंदों के पीछे शिकारी पक्षी भी शिकार को मेरी टहनियों पर आकर बैठते है , उनके पंख और नाखून देख में कांप ता हूं पर में जानता हूं कि यही प्रकृति का संतुलन है | में जैव विविधता की डोर को मजबूत करने में अपनी मूक स्वीकृति दे देता हूं क्योंकि यह जरूरी है | यह समय अल्प होता है पर मुझे अगले एक वर्ष तक जीने की उम्मीद दे जाता है और में हर वर्ष दोगुने उत्साह के साथ तैयार होता हूं मेरे चटख फूलों के साथ इन नन्हे साथियों का स्वागत करने के लिए …
में जानता हूं वो अगले वर्ष फिर से आयेंगे अपने नए साथियों के साथ अपने इस ख़ास दोस्त की दावत का लुत्फ उठाने….!
और रही बात मेरी तो……
मैं सिर्फ एक पेड़ नहीं, मैं जंगल की आत्मा हूँ,
मैं ऋतुओं का संकेत हूँ, मैं जीवन चक्र की एक कड़ी हूँ।
मौसमों की पहली पुकार हूँ,
और अब, शायद… तुम्हारी याद में खोती जा रही एक आवाज़।
क्योंकि
मैं पलाश हूँ — सदियों से परिंदों के सुकून की तलाश हूँ |
लेखक : शुभम पुरोहित मध्य प्रदेश के एक प्रकृतिवादी, नेचर एजुकेटर और लेखक हैं जो वन्यजीव संरक्षण और पर्यावरण
जागरूकता के लिए समर्पित हैं। अपने फील्ड वर्क, व्याख्या कार्यक्रमों और प्रकृति-आधारित लेखन के माध्यम से,
वह लोगों का प्राकृतिक दुनिया के साथ संबंध गहरा करने का काम करते हैं।
About the author: Shubham Purohit is a Madhya Pradesh-based naturalist, nature educator, and writer dedicated to wildlife conservation and environmental awareness. Through his fieldwork, interpretation programs, and nature-based writings, he works to deepen people’s connection with the natural world.
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